गुरु-शिष्य का सम्बन्ध पूर्वनिर्धारित है
दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः
स्पर्शश्चेत्तत्र कल्प्यः स नयति यदहो स्वर्णतामस्मसारम्।
न स्पर्शत्वं तथाऽपि श्रितचरणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये
स्वीयं साम्यं विधत्ते भवति निरूपमस्तेन वाऽलौकिकोऽपि।।
सद्गुरु के समतुल्य त्रिभुवन में कुछ भी नहीं है। पारसमणि के अस्तित्व की कल्पना को यदि सच मान लिया जाए, तो वह भी लोहे के केवल सोना बना सकती है, दूसरी पारसमणि नहीं बना सकती, किन्तु सद्गुरु के चरणों में जो शिष्य आश्रय लेते हैं, उन्हें सद्गुरु अपने समान ही बना देते है, इसलिए गुरु अनुपम हैं, वरन् अलौकिक भी हैं।
गुरुपूर्णिमा पर हार्दिक शुभकामनाऍं!!
गुरु-शिष्य का सम्बन्ध न केवल पूर्व निर्धारित है, वरन् यह पूर्वजन्मकालिक भी है। कई उदाहरणों में तो यह जन्म-जन्मान्तर का प्रतीत होता है। रानीखेत की दुर्गम पहाडियों में महावतार बाबाजी इसीलिए अपने शिष्य लाहड़ी महाशय का इन्तजार करते हैं। स्वामी विवेकानन्द जी को देखकर रामकृष्ण परमहंस यही कहते हैं कि तू आ गया मैं कब से इन्तजार कर रहा था। परमहंस योगानन्द जी को देखकर भी उनके गुरु युक्तेश्वर जी ने यही कहा कि ओ मेरे प्रिय तुम मेरे पास आ गए, कितने वर्षों से मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। ये उदाहरण जन्म-जन्मान्तर या पूर्वजन्मकालिक गुरु-शिष्य सम्बन्ध के हैं।
अलवर रियासत में नाजिम रहे मुरलीधर जी वर्षों से सद्गुरु की खोज में तीर्थाटन कर रहे थे, परन्तु उनके गुरु उन्हें नहीं मिल पा रहे थे। हरिद्वार के कुम्भ मेले में एक परमहंस साधु मिले और उन्हें वे अपना गुरु बनाना चाहते थे, परन्तु उन परमहंस साधु ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि मैं तेरा गुरु नहीं हूं, तेरा गुरु तेरे पास अलवर ही आएगा, तब तुझे अपना शिष्य बनाएगा, तुझे इधर-उधर भागने की जरूरत नहीं है। यही हुआ नियत समय के पश्चात् उनके गुरु अलवर ही आए और तब उन्होंने दीक्षा लेकर संन्यास ग्रहण किया। ऐसे एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं, जो यह दर्शाते हैं कि गुरु-शिष्य का सम्बन्ध एक व्यवस्था के तहत पूर्वनिर्धारित है।
दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः
स्पर्शश्चेत्तत्र कल्प्यः स नयति यदहो स्वर्णतामस्मसारम्।
न स्पर्शत्वं तथाऽपि श्रितचरणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये
स्वीयं साम्यं विधत्ते भवति निरूपमस्तेन वाऽलौकिकोऽपि।।
सद्गुरु के समतुल्य त्रिभुवन में कुछ भी नहीं है। पारसमणि के अस्तित्व की कल्पना को यदि सच मान लिया जाए, तो वह भी लोहे के केवल सोना बना सकती है, दूसरी पारसमणि नहीं बना सकती, किन्तु सद्गुरु के चरणों में जो शिष्य आश्रय लेते हैं, उन्हें सद्गुरु अपने समान ही बना देते है, इसलिए गुरु अनुपम हैं, वरन् अलौकिक भी हैं।
गुरुपूर्णिमा पर हार्दिक शुभकामनाऍं!!
गुरु-शिष्य का सम्बन्ध न केवल पूर्व निर्धारित है, वरन् यह पूर्वजन्मकालिक भी है। कई उदाहरणों में तो यह जन्म-जन्मान्तर का प्रतीत होता है। रानीखेत की दुर्गम पहाडियों में महावतार बाबाजी इसीलिए अपने शिष्य लाहड़ी महाशय का इन्तजार करते हैं। स्वामी विवेकानन्द जी को देखकर रामकृष्ण परमहंस यही कहते हैं कि तू आ गया मैं कब से इन्तजार कर रहा था। परमहंस योगानन्द जी को देखकर भी उनके गुरु युक्तेश्वर जी ने यही कहा कि ओ मेरे प्रिय तुम मेरे पास आ गए, कितने वर्षों से मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। ये उदाहरण जन्म-जन्मान्तर या पूर्वजन्मकालिक गुरु-शिष्य सम्बन्ध के हैं।
अलवर रियासत में नाजिम रहे मुरलीधर जी वर्षों से सद्गुरु की खोज में तीर्थाटन कर रहे थे, परन्तु उनके गुरु उन्हें नहीं मिल पा रहे थे। हरिद्वार के कुम्भ मेले में एक परमहंस साधु मिले और उन्हें वे अपना गुरु बनाना चाहते थे, परन्तु उन परमहंस साधु ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि मैं तेरा गुरु नहीं हूं, तेरा गुरु तेरे पास अलवर ही आएगा, तब तुझे अपना शिष्य बनाएगा, तुझे इधर-उधर भागने की जरूरत नहीं है। यही हुआ नियत समय के पश्चात् उनके गुरु अलवर ही आए और तब उन्होंने दीक्षा लेकर संन्यास ग्रहण किया। ऐसे एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं, जो यह दर्शाते हैं कि गुरु-शिष्य का सम्बन्ध एक व्यवस्था के तहत पूर्वनिर्धारित है।
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